दरकती दीवारों को थामने की कोशिश करता कुनबा

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सिंहासन तिकड़मों से चल सकता है, लेकिन जब दीवारें दरकनें लगें तो सियासत गड़बड़ाने लगती है.

उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक परिवार की जमीन दरक रही है, यह आने वाले समय में खुद साबित होने जा रहा है। यह दावा नहीं किया जा रहा बल्कि पिछले कुछ समय के घटनाक्रम ऐसी भविष्यवाणियों को विराम नहीं दे सकते जो स्थिति बयान कर रही हैं कि समाजवादी पार्टी के लिए अगले महीने बाहर से 'सब ठीक है’ वाले होंगे, जबकि अंदरखाने 'कुछ ठीक नहीं है’ वाले हो सकते हैं।

पार्टी में जब समय बदलाव की मांग करता है, हालांकि इसमें जनता की इच्छा शामिल नहीं होती, तो उथलपुथल होती है। पुराने पासे धरे रह जाते हैं। पुरानी चालें काम नहीं आतीं और परिस्थतियां काबू से बाहर होकर बिखराव की तरफ रुख कर देती हैं।

मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह के राजनैतिक सन्यास की सोची होगी, वैसा नहीं होने वाला। न ढोल बजेंगे, न नगाड़े, उत्साह भी मर चुका होगा। संतुष्टि का भाव जो था, वह भी जाता रहेगा। एक तरह से कई बार उपहास की तरह लग सकता है। सवाल यह भी है कि मुलायम राजनीति से सन्यास क्यों लेंगे?

उत्तर सरल भी हो सकता है, कि उम्र साथ न दे तो राजनीति और कुर्सी का मोह छोड़ देना चाहिए। वे खुद से भी शायद पूछ रहे हों या दुविधा हो कि समय कब सही रहेगा। बेटा अखिलेश यादव सिंहासन पर फिलहाल है, लेकिन भविष्य में डांवाडोल महसूस हो रहा है।

नेताजी का दिल रामगोपाल यादव 'बड़ा’ बता चुके हैं, मगर पुत्र मोह के कारण वे लाचार भी दिखाई पड़ते हैं। शायद बाहर से जनता को भी यह लग सकता है। वोट देने का मन है, या सरकार बदलनी है, इसका फैसला होने में अधिक समय नहीं है। कितना बेवकूफ बनाया गया, कितना काम हुआ, कितना सरकार ने राहत दी, बगैरह-बगैरह सोचने का लोगों के पास समय था। वे अगली सत्ता को चाहते हैं या मौजूदा से खुश हैं, यह निर्णय पहले साल में ही अकसर हो जाता है।

कुनबे की कलह ने सपा की कलई जरुर खोल दी है। अखिलेश यादव के कद को कमजोरी मिली है, यह साफ दिख रहा है। मुलायम सिंह यादव का ग्राफ जैसा पहले था, वही रहा, बिना तब्दीली के।

सपा की तैयारी पर फर्क पड़ा है। उसकी जो भावी रणनीतियां थीं, वे धराशायी हुई हैं। यह इस तरह भी कहा जा सकता है -फिल्म ठीक चल रही थी, आखिर में कहानी गड़बड़ा गयी।

अखिलेश जो कहने की सोच रहे थे, उसे या तो कह नहीं पायेंगे या उसके शब्द बदलेंगे। इससे संदेश बदले हुए जायेंगे। साफ तौर पर चुनाव में सपा की साख पर बुरा असर होगा।

परिवार के सदस्यों और नौकरशाही पर उनकी पकड़ से भी समस्या पैदा होगी। 'मैं यह चाहता हूं, वह कुछ ओर चाहता है', वाली स्थिति पैदा हो गयी है। आपसी खींचतान के कारण राजनीतिक ताकत कमजोर खुद ही हो जायेगी। समाजवादी कुनबा मजबूती से काम करता था, वह मजबूती नहीं होगी और विधानसभा चुनाव में उसका असर दिखेगा।

सिंहासन तिकड़मों से चल सकता है, लेकिन जब दीवारें दरकनें लगें तो सियासत भी गड़बड़ाने लगती है। यूपी में रोमांचक मुकाबला होगा, यह तय है, मगर यह भी तय है कि सपा का कुनबा दरकती दीवारों को थामने की कोशिश करता नजर आयेगा।

-हरमिंदर सिंह.


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दरकती दीवारों को थामने की कोशिश करता कुनबा दरकती दीवारों को थामने की कोशिश करता कुनबा Reviewed by Gajraula Times on October 04, 2016 Rating: 5
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