उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं वैसे ही वैसे राजनीतिक दलों के नेताओं ने चुनावी तैयारियां तेज कर दी हैं। राजनीतिक हलकों में इन चुनावों को 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल माना जा रहा है। केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा सबसे बड़े राज्य पर जीत के लिए हर हथकंडा अपनाने में जुटी है। सूबे की सत्ता की बागडोर पकड़े सपा उसे छोड़ने को तैयार नहीं और चुनावी विजय के लिए हरसंभव औजार का इस्तेमाल करने में लगी है। लंबे समय से सपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी बसपा अपना हक मानकर मायावती को पांचवी बार मुख्यमंत्री बनवाने को जद्दोजहद कर रही है। उधर लगभग तीन दशक से यहां की सत्ता से बेदखल कांग्रेस अपनी ताकत बढ़ाने के लिए नये-नये नुस्खे ईजाद कर रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यहां भाजपा को हराने के मकसद में कई दलों को एकजुट करने को एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। रालोद जैसे कई छोटे दल अपनी कमजोर हालत के कारण इस प्रयास में हैं कि सूबे में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले और ऐसे में कोई उन्हें भी सरकार में साझीदार बना ले। पीस पार्टी तथा इत्तेहाद मुस्लिमीन जैसे कई मुस्लिम दल एकजुट होकर एक कथित धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की गोलबंदी में हैं। इन सभी स्थितियों में आगामी विधानसभा चुनाव के परिणाम बहुत ही अस्पष्ट हैं बल्कि यह कहने में भी कोई दिक्कत नहीं कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम चौंकाने वाले होंगे।
उत्तर प्रदेश बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुजातीय तथा भारत की सभी जातियों, उपजातियों और वर्गों तथा समूहों वाला राज्य है। एक तरह से यहां हमारे देश की सभी संस्कृतियों का साझा जमघट है। इस कृषि प्रधान राज्य में किसान सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं। चुनाव से पूर्व सभी दल किसानों को फुसला-बहलाकर उनसे वोट हासिल करते रहे हैं, लेकिन बाद में सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे की कहावत पर खरे उतरते रहे हैं।
केन्द्र की भाजपा तथा राज्य की सपा सरकारों ने भी इसी तरह किसानों तथा कृषि मजदूरों के वोट हासिल कर सत्ता हथियायी लेकिन दोनों ही सरकारों के कामकाज से यह बहुसंख्यक वर्ग संतुष्ट नहीं है। इस रवैये से किसान और भी नाराज हैं कि दोनों सरकारें किसानों की बदहाली का ठीकरा एक दूसरे के सिर पर फोड़कर उनका दर्द और बढ़ा रही हैं। किसानों की दिक्कतों की सूची इतनी लंबी हो चुकी कि उनका विस्तृत वर्णन करने में एक विशाल पुस्तक तैयार हो जायेगी। जबकि दोनों सरकारें मीडिया में करोड़ों रुपयों के विज्ञापन देकर यह दिखाने का प्रयास कर रही हैं मानो उन्होंने किसानों के लिए खुशहाली के द्वार खोल दिये हों। प्रचार पर किये जा रहे इस धन को ही यदि किसानों को सौर ऊर्जा जैसे उपकरण खरीदने में छूट पर खर्च कर दिया जाता तो उनकी सिंचाई का खर्च बहुत कम हो जाता।
किसान दोनों तरह से बरबाद है। उत्पादन बढ़ाता है, तो माल मुफ्त लुटाना पड़ता है, उत्पादन कम होता है तो बिकेगा क्या?
चाहें भाजपा हो, सपा या बसपा हो, कांग्रेस अथवा दूसरी कोई भी पार्टी हो, सभी दल सूबे के जातीय समीकरणों का आकलन कर उन्हें लुभाने के जुगाड़ ढूंढने में ताकत झोंकने में लग गये हैं। भाजपा और बसपा में दलित मतों की खींचतान को लेकर हो हल्ला मच रहा है। दलितों के अत्याचार के मुद्दे जोर पकड़ रहे हैं। स्त्रियों के मान-सम्मान की चर्चायें चल पड़ी हैं। हिन्दू-मुस्लिम पलायन के मामलों को हवा देने का काम भी चल पड़ा है। मुस्लिम मतों की खींचतान सबसे अधिक सपा, कांग्रेस और बसपा में है। कई सूख चुके घावों को फिर से कुरेद कर आपसी टकराव की तंग होती खाई को फिर से चौड़ा कर चुनावी लाभ की पटकथा तैयार हो रही है। भाषणों और तकरीरों में विकास, राष्ट्रभक्ति, गांव, गरीब और किसानों की बातें हो रही हैं जबकि पर्दे के पीछे कुर्सी हथियाने के हर हथकंडों को अपनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जा रही।
आयेदिन वोट बैंक मजबूत करने के लिए सभी दल रैलियां, सभायें, रथ यात्रायें, साईकिल रैलियां और जनचेतना संपर्क कार्यक्रमों में भीड़ जुटाते फिर रहे हैं। लोग परेशान हैं। वे अपने लिए दो जून की रोटियों की तलाश में काम तलाश रहे हैं। इन रैलियों और सभाओं से उनका मोहभंग हो चुका है। घोर निराशा और अवसाद में पहुंच चुके आम आदमी को नेताओं से अब और अधिक अपेक्षायें नहीं। ज्यादातर लोगों को सभी दल कमोवेश एक ही थैली के चट्टे-बट्टे दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में सूबे की आगामी सरकार किसकी होगी यह आकलन बहुत ही मुश्किल है।
-जी.एस.चाहल.
चौंकाने वाले चुनावी परिणाम आयेंगे उत्तर प्रदेश विधानसभा के
Reviewed by Gajraula Times
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August 02, 2016
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