उत्तर प्रदेश की सियासी बिसात हर पल रोचक होती जा रही है। चुनावी समीकरण यहां बहुत जल्दी-जल्दी बदल रहे हैं। किसी भी दल की मामूली गतिविधि से वोटरों पर तेजी से प्रभाव होता है। बयानों से होने वाला असर अलग तरह का काम करता है। वो अलग बात है कि जनता पहले से समझदार हो चुकी है और वह बयानों की राजनीति पर उतनी गंभीरता से प्रतिक्रिया नहीं करती।
दलितों को लेकर उत्तर प्रदेश में सियासी हवायें हमेशा गर्म रही हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा को दलितों और पिछड़ों ने दिल खोलकर वोट दिया था। उन्हें उम्मीदें ढेर सारी थीं जिन्हें पूरा होते वे देखना चाहते थे।
आज स्थिति पूरी तरह बदल गयी है। दलित ऐसा मुद्दा बनकर उभरा है कि भारत की राजनीति पर उसका प्रभाव देखने को मिला है।
भाजपा ने सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया है। उसका कहना है कि वह सभी वर्गों को साथ लेकर चलने में यकीन रखती है। वहीं बसपा के लिए जो मुश्किलें भाजपा की ओर से पहले खड़ी की गयी थीं और उसके वोट बैंक में सेंधमारी हुई थी, वह अब लगभग छंट गयी है। स्थिति पूरी तरह बदल गयी है।
बसपा का वोट बैंक मजबूत हुआ है। लेकिन दलित वर्ग के लिए हम ऐसा कह सकते हैं, जबकि सवर्ण उससे कुछ दूरी बना सकते हैं। ओपिनियन पोल अपनी राय दे रहे हैं। सर्वे जुलाई महीने के पहले हुए हैं जिनमें मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन रही हैं। उस समय सियासी पारा अलग तरह का था।
जबतक कांग्रेस ने अपने पत्ते नहीं खोले थे और न ही भाजपा ने आगे की रणनीति तय की थी।
यह बिल्कुल भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि मायावती की स्थिति अभी भी कमजोर नहीं है। गुजरात कांड और दयाशंकर प्रकरण के बाद समीकरण परिवर्तित जरुर हुए हैं, लेकिन उसका लाभ दूसरे दलों विशेषकर भाजपा को भी नहीं मिला है। उल्टे भाजपा का नुकसान हुआ है।
वैसे बसपा, सपा और कांग्रेस ने अल्पसंख्यक वोटों को अपनी ओर रिझाने की कोशिशें जारी रखी हैं। इनके सामने भाजपा दलित, पिछड़ों और सवर्णों की बात कर रही है। सपा की ओर अल्पसंख्यक यह सोचकर जाना नहीं चाहते कि पिछले पांच साल के शासन में उन्हें उतना फायदा नहीं मिल सका। पहले हालांकि उन्होंने दिल खोलकर सपा को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी। लोकसभा चुनाव में यूपी से एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं जीत सका। अखिलेश यादव शायद इस बार दूसरी रणनीति पर काम करें। कांग्रेस अभी भी अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लेकर गंभीर बनी हुई है। बसपा की ओर अल्पसंख्यक इस भरोसे के साथ हैं कि सपा का शासन वे देख चुके।
चुनाव अगले साल होने हैं और भाजपा ने कई मुद्दों को हवा दी है जिनमें कैराना का मुद्दा सबसे बड़ा है। वो अलग बात है कि इस बार राम मंदिर पर भाजपा बात करने से बच रही है। उसे आजमा कर देखा जरुर लेकिन वह फेल हो गया। लव जिहाद और गाय वाले मुद्दे का हश्र पार्टी ने बिहार में देखा ही लिया है।
उत्तर प्रदेश में मुकाबला रोचक होगा यह तय है। यहां का जीत-हार का ग्राफ रोज बदल रहा है। दिसंबर तक तो स्थितियां पूरी तरह बदली हुई हो सकती हैं और उसके कुछ समय बाद चुनाव भी होंगे।
-पॉलिटिक्स ब्यूरो.
उत्तर प्रदेश चुनाव : हर पल बदल रहे समीकरण
Reviewed by Gajraula Times
on
July 26, 2016
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