भाजपा और सपा में करो या मरो

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आने वाले सात माह उत्तर प्रदेश के लिए चुनावी संग्राम के सबसे संघर्षपूर्ण और चुनौतियों से भरे होंगे। केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा और प्रदेश में राज कर रही सपा लखनऊ पर कब्जा जमाने के लिए किसी भी हद जक जा सकती हैं। इन दोनों के बीच बसपा भी सत्ता के लिए एड़ी चोटी का जोर लगायेगी। उधर प्रदेश में लबे समय से सत्ता से बेदखल कांग्रेस भी स्थिति मजबूत करने के लिए रणनीति बनाने में जुटी है। प्रदेश की राजनीति का एक प्रमुख घटक दल रालोद अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए एक ऐसा सहयोगी ढूंढ रहा है, जिसके कंधे पर सवार होकर वह राजनैतिक कदम मजबूत कर सके।

सबसे पहले हम यहां सत्ता पर काबिज सपा की स्थिति पर विचार करते हैं। सपा पिछले चुनाव में मुस्लिम यादव गठजोड़ के साथ पिछड़ा वर्ग मतदाताओं के बूते दमदार ढंग से सत्ता में आयी। युवा नेता अखिलेश यादव के नेतृत्व में गुंडाराज के लिए बदनाम सपा ने विकास के नाम वोट हासिल किये तथा मायावती की सत्तारुढ़ बसपा को पार्कों और हाथियों के निर्माण पर किये खर्च का खामियाजा भुगत सत्ता से बाहर होना पड़ा।

सपा सरकार जिस काम के लिए बदनाम रही है, वही गलती थोड़ी बहुत घटत-बढ़त के साथ जारी रही. बल्कि इस बार सत्ता पर मुलायम सिंह यादव के कुनबे के पहले से अधिक सदस्यों का कब्जा हो गया. भले ही इसे समाजवादी सरकार की संज्ञा मिली है, बल्कि इसे यादव परिवार की सरकार कहा जाये तो गलत नहीं होगा.

विकास के नाम पर अधिकांश पैसा सैफई और उन स्थानों पर लगाया गया है जहां यादव परिवार की राजनीतिक जड़े हैं। विकास के नाम पर चलाई जा रही सैकड़ों योजनाओं के बावजूद गांव, किसान और मजदूर विकास से कोसों दूर हैं। भ्रष्टाचार का दंश आम आदमी को निगल रहा है। अधिकांश महत्वपूर्ण महकमों पर कब्जा जमाये बैठे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपनी खुशहाली में आर्थिक रुप से खोखले होते जा रहे आम आदमी के घर भी खुशहाली दिखाई दे रही है। कानून व्यवस्था की बदहाली का ताजा उदाहरण मथुरा का रामवृक्ष यादव कांड है।

मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों से मुक्ति पाने और बहुसंख्यक हिन्दू मतों के दो वर्ष पूर्व भाजपा के पक्ष में लामबंद होते से हुई क्षति की पुनरावृत्ति पर विराम लगाने के लिए राज्यसभा और विधान परिषद के नामित सदस्यों की नीति में मुस्लिमों से परहेज किया गया है। विधानसभा चुनाव में भी मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या कम करके हिन्दू बहुसंख्यकों को जातिगत सामंजस्य कायम रखते हुए अधिक सीटें दी जायेंगी। एक सिख बलवंत सिंह रामूवालिया को मंत्रीमंडल में स्थान देकर तराई क्षेत्र और उससे सटे जनपदों के सिखों को पाले में लाने का प्रयास किया गया है। इस बार सपा सभी बिरादरियों के एक-एक मत का आकलन कर जातिगत समीकरण साध कर चुनावी भवसागर से पार पाने की रणनीति पर बहुत गंभीर है। वह ऐसा प्रयास कर रही है जिससे परिवारवाद, भ्रष्टाचार और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप बेअसर हो सकें।

लोकसभा चुनाव के दो वर्ष तक किसानों और गांवों का नाम न लेने वाली भाजपा अचानक वोटों की फसल पर कब्जा करने के लिए किसानों और गांवों की बात करने लगी है

उधर भाजपा ने उत्तर प्रदेश में चुनावी प्रचार शुरु कर दिया है। वह बहुत ही गंभीरता से रणनीति बनाकर हर हाल में यहां सरकार बनाने की कोशिश में जुटी है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को दलित कुछ अधिक ही प्रिय लगने लगे हैं। वे दलितों के घर भोजन कर यह संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं कि भाजपा उनसे भेदभाव या छुआछूत नहीं मानती। लोकसभा चुनाव के दो वर्ष तक किसानों और गांवों का नाम न लेने वाली भाजपा अचानक वोटों की फसल पर कब्जा करने के लिए किसानों और गांवों की बात करने लगी है। कई भगवा वेशधारी साम्प्रदायिक मुद्दों को हवा देकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास में भी जुट गये हैं। कुल मिलाकर अमित शाह और नरेन्द्र मोदी लोकसभा चुनाव की तर्ज पर प्रचार में जुटेंगे।

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पिछड़ा वर्ग के मतों के लिए भाजपा, सपा और बसपा में बहुत खींचतान है

उधर बसपा सपा-भाजपा वाकयुद्ध को गंभीरता से देख रही है तथा अभी इस पर धीमी लेकिन सधी प्रतिक्रिया कर रही है। वह भाजपा से अपने परंपरागत दलित मतों को बचाने में जुटी है तथा अल्पसंख्यक मतों की सेंधमारी की कोशिश में है। पिछड़ा वर्ग के मतों के लिए भाजपा, सपा और बसपा में बहुत खींचतान है। पिछड़ा वर्ग में जाट, यादव, गूजर आदि कई ऐसी जातियां हैं जिनके मत निर्णायक होंगे। ब्राह्मण और सवर्ण मतों पर भी खींचतान रहेगी। लोकसभा चुनाव में भाजपा इन सभी वर्गों को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण एकजुट करने में सफल रही। यही कारण था कि सपा, बसपा जैसी यहां लंबे समय से जड़ें जमा चुकी पार्टियों का भी सूपड़ा साफ हो गया। कांग्रेस और रालोद की भी यही गत रही। मुस्लिम बहुसंख्यक सूबे में एक भी मुस्लिम विजयी न होना आश्चर्यजनक था। भाजपा फिर से धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर सकती है, लेकिन दो वर्ष में उसके द्वारा निराशाजनक प्रदर्शन तथा किसानों और गांवों की अनदेखी उसकी मंजिल में अवरोधक का काम करेगी।

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कांग्रेस के पास कोई ऐसा नेता नहीं जो उसे प्रदेश में मजबूती प्रदान कर सके

उधर कांग्रेस कुछ छोटे-छोटे दलों से गठबंधन कर अपनी साख बचाने का प्रयास करेगी। उत्तर प्रदेश में उसके पास कोई ऐसा नेता नहीं जो कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने में सफल हो सके। रालोद की हालत पहले से भी बदतर है। अब सपा उसे अपने साथ लाने का प्रयास कर रही है। यह बेमेल खिचड़ी रालोद की बचीखुची स्थिति को और कमजोर ही करेगी।

इस समय भाजपा, सपा और बसपा में ही मुख्य प्रतिद्वंदिता की तस्वीर है। आने वाले समय में पता चलेगा, तीनों में कौन मजबूत है।

-जी.एस. चाहल.

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भाजपा और सपा में करो या मरो भाजपा और सपा में करो या मरो Reviewed by Gajraula Times on June 10, 2016 Rating: 5
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